SCHOOLS OF HINDU LAW
Difference between Mitakshara & Dayabhaga मिताक्षरा व दायभाग में अंतर- मिताक्षरा 1100 से 1200 AD में विज्ञानेश्वर द्वारा याज्ञवल्क्य स्मृति पर लिखी गई टिका है जोकि समस्त हिंदू लॉ पर लागू होती है यह शाखा कट्टरपंथी व प्रतिक्रियावादी मानी जाती है। जबकि दायभाग 1090 से 1130 AD में जीमूतवाहन द्वारा लिखी गई टीका है यह उदारवादी और प्रगतिशील वादी है। 1) विस्तार- मिताक्षरा बंगाल असम को छोड़कर संपूर्ण भारत में लागू होती है जिन विधियों के विषय में दायभाग में अभाव है वहां उन विषयों पर मिताक्षरा बंगाल व असम में लागू होती है। जबकि दायभाग केवल बंगाल और असम में ही लागू होती है। 2) उत्तराधिकार संबंधी अंतर- मिताक्षरा में Law Of Propinquity लागू होता है। अर्थात् निकट रक्त संबंधियों को संपत्ति दी जाती है जैसे पुत्र, पौत्र व प्रपौत्र। जो जितना नजदीकी रक्त संबंधी होगा संपत्ति पाने के लिए उतना ही हकदार होगा। पहले स्त्रियों को उत्तराधिकार से अपवर्जित (Exclude) कर दिया जाता था लेकिन अब हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005 के तहत स्त्रियों को पुरुषों के समान संयुक्त हिंदू परिवार में सहदायिकी के समान माना जाएगा। जबकि दायभाग में Principle of Religious Efficacy or Pindanaha to Deceased Person लागू होता है जिसके अनुसार जो व्यक्ति मृतक व्यक्ति के पिंडदान की क्रिया करने में नजदीकी पाया जाता है वही मृतक की संपत्ति में उत्तराधिकारी होता है। 3) संयुक्त परिवार संबंधी अंतर- ☆मिताक्षरा विधि में जन्म से ही प्रत्येक व्यक्ति अर्थात पुत्र, पौत्र व प्रपौत्र अपने पिता के साथ सहदायिकी का निर्माण करते हैं। (लेकिन अब हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005 के तहत अब बेटी भी पिता के साथ सहदायिकी का निर्माण करती है।) मिताक्षरा विधि में जन्म से ही प्रत्येक व्यक्ति अर्थात पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र व पुत्री संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति में उत्तराधिकारी होते हैं। जबकि दायभाग में जन्म से पुत्र का परिवार की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं होता है। ☆ परिवार का मुख्य अर्थात कर्ता विभाजन के समय ही परिवार की कुल संपत्ति का विवरण देता है। लेकिन दायभाग में कर्ता को जब भी परिवार की संपत्ति का विवरण देने के लिए कहा जाएगा उसे संपत्ति का विवरण देना होगा इसके लिए विभाजन की आवश्यकता नहीं होती है। ☆ मिताक्षरा में विभाजन के बाद एक नए संयुक्त परिवार का निर्माण होता है। जबकि दायभाग में ऐसा कुछ नहीं होता है। ☆ मिताक्षरा में परिवार की संपत्ति का Fluctuating interest होता है अर्थात एक सहदायिकी के मरने पर अन्य सहदायिकी का परिवार की संपत्ति में हित बढ़ता है व एक सहदायिकी के जन्म लेने पर अन्य सहदायिको का परिवार की संपत्ति में अधिकार घट जाता है। जबकि दायभाग में परिवार की संपत्ति में हित निश्चित होता है। ☆ मिताक्षरा में ना तो पिता संयुक्त परिवार की संपत्ति को बेच सकता है और ना ही कर्ता संयुक्त परिवार की संपत्ति को बेच सकता है। जबकि दायभाग में पिता जब चाहे परिवार की संपत्ति को बेच सकता है। पिता को इस विषय में असीमित शक्तियां होती हैं लेकिन कर्ता को सीमित शक्तियां होती हैं।
Difference between Mitakshara & Dayabhaga मिताक्षरा व दायभाग में अंतर- मिताक्षरा 1100 से 1200 AD में विज्ञानेश्वर द्वारा याज्ञवल्क्य स्मृति पर लिखी गई टिका है जोकि समस्त हिंदू लॉ पर लागू होती है यह शाखा कट्टरपंथी व प्रतिक्रियावादी मानी जाती है। जबकि दायभाग 1090 से 1130 AD में जीमूतवाहन द्वारा लिखी गई टीका है यह उदारवादी और प्रगतिशील वादी है। 1) विस्तार- मिताक्षरा बंगाल असम को छोड़कर संपूर्ण भारत में लागू होती है जिन विधियों के विषय में दायभाग में अभाव है वहां उन विषयों पर मिताक्षरा बंगाल व असम में लागू होती है। जबकि दायभाग केवल बंगाल और असम में ही लागू होती है। 2) उत्तराधिकार संबंधी अंतर- मिताक्षरा में Law Of Propinquity लागू होता है। अर्थात् निकट रक्त संबंधियों को संपत्ति दी जाती है जैसे पुत्र, पौत्र व प्रपौत्र। जो जितना नजदीकी रक्त संबंधी होगा संपत्ति पाने के लिए उतना ही हकदार होगा। पहले स्त्रियों को उत्तराधिकार से अपवर्जित (Exclude) कर दिया जाता था लेकिन अब हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005 के तहत स्त्रियों को पुरुषों के समान संयुक्त हिंदू परिवार में सहदायिकी के समान माना जाएगा। जबकि दायभाग में Principle of Religious Efficacy or Pindanaha to Deceased Person लागू होता है जिसके अनुसार जो व्यक्ति मृतक व्यक्ति के पिंडदान की क्रिया करने में नजदीकी पाया जाता है वही मृतक की संपत्ति में उत्तराधिकारी होता है। 3) संयुक्त परिवार संबंधी अंतर- ☆मिताक्षरा विधि में जन्म से ही प्रत्येक व्यक्ति अर्थात पुत्र, पौत्र व प्रपौत्र अपने पिता के साथ सहदायिकी का निर्माण करते हैं। (लेकिन अब हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005 के तहत अब बेटी भी पिता के साथ सहदायिकी का निर्माण करती है।) मिताक्षरा विधि में जन्म से ही प्रत्येक व्यक्ति अर्थात पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र व पुत्री संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति में उत्तराधिकारी होते हैं। जबकि दायभाग में जन्म से पुत्र का परिवार की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं होता है। ☆ परिवार का मुख्य अर्थात कर्ता विभाजन के समय ही परिवार की कुल संपत्ति का विवरण देता है। लेकिन दायभाग में कर्ता को जब भी परिवार की संपत्ति का विवरण देने के लिए कहा जाएगा उसे संपत्ति का विवरण देना होगा इसके लिए विभाजन की आवश्यकता नहीं होती है। ☆ मिताक्षरा में विभाजन के बाद एक नए संयुक्त परिवार का निर्माण होता है। जबकि दायभाग में ऐसा कुछ नहीं होता है। ☆ मिताक्षरा में परिवार की संपत्ति का Fluctuating interest होता है अर्थात एक सहदायिकी के मरने पर अन्य सहदायिकी का परिवार की संपत्ति में हित बढ़ता है व एक सहदायिकी के जन्म लेने पर अन्य सहदायिको का परिवार की संपत्ति में अधिकार घट जाता है। जबकि दायभाग में परिवार की संपत्ति में हित निश्चित होता है। ☆ मिताक्षरा में ना तो पिता संयुक्त परिवार की संपत्ति को बेच सकता है और ना ही कर्ता संयुक्त परिवार की संपत्ति को बेच सकता है। जबकि दायभाग में पिता जब चाहे परिवार की संपत्ति को बेच सकता है। पिता को इस विषय में असीमित शक्तियां होती हैं लेकिन कर्ता को सीमित शक्तियां होती हैं।
Two principal Schools—Mitakshara and Dayabhaga: The two main schools of Hindu Law are the”Mitakshara” and the `Dayabhaga’. These two schools of Hindu Law are marked by a vital difference of opinion and interpretations of the Smritis. The Mitakshara written by Vijnaneshwara is a running commentary on the Smriti of Yajnavalkya and ‘the Dayabhaga’ written by Jimulavahana is not a commentary on any particular Code, but professes to be a digest of all the Codes. The Mitakshara School prevails throughout India except Bengal where the Dayabhaga School prevails.
Mitakshara School of Hindu Law can “again be divided into five sub-schools:
(1) Banaras School of Hindu Law.
(2) Mithila School of Hindu Law.
(3) Maharashtra or Bombay School of Hindu Law.
(4) Dravida or Madras School of Hindu Law.
(5) Punjab School of Hindu Law.
All these schools acknowledge the supreme authority of Milakshara, but give preference to certain treaties and commentaries which control the certain passage of the Mitakshara.
How these schools arose?—As to the causes which have given rise to these different schools, it should be noted that originally there were no schools of Hindu Jurisprudence. Schools of Hindu Law came into being when different commentaries appeared to interpret the Smritis’ with reference to different local customs that were in vogue in different parts of India. In Rutcheputty v. Rajendra, it has been observed by the Privy Council that the different schools of Hindu Law have originated due to different local customs prevailing in different provinces of India. The commentators on the Smritis could not ignore the local customs and usages and while interpreting the texts, they eventually incorporated different local customs. The local conditions and customs of the different provinces have, therefore, gone to mould the principles of law prevailing in each province. Process of development.—ln the case of Collector of Madras v. Moottoo Rantalinga, 1(1968) 12 MIA 397/, the Privy Council has held, “The remoter sources of the Hindu Law (that is Smritis) are common to all the different schools. The process by which those schools have been developed seems to have been of this kind. Works universally or very generally received became the subjects of subsequent commentaries. The commentator put his own gloss on the ancient text; and his authority having been received in one and rejected in another part of Indian schools with conflicting doctrines arose”. The variances between the sub-divisions of the Mitakshara school are comparatively few and slight.
Following are the reasons for these differences :—
(1) One reason which used to be given for this division is that “the glosses and commentaries upon the Mitakshara are received by some of the schools but are not received by all”.
(2) Another reason given for this division into schools is that the commentaries in a particular province which follow the Mitakashara put a particular gloss on it and are agreed upon it among themselves.
Dayabhaga.—This school prevails in West Bengal as well as in Assam, except in one point in which the written law is at variance with the customs of the locality.
The following authorities are the chief exponents of this school :—
(i) Dayabhaga,
(ii) Dayatatva,
(iii) Dayakrama-Sangraha,
(iv) Viramitrodaya and
(v) Dattaka-Chandrika.
As a result of the above process two principal schools of Hindu Law sprang up, i.e., (i) Mitakshara and (ii) the Dayabhaga.